आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

आइये अभिवादन करें

         मित्रों महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम किसका अभिवादन करें , महत्वपूर्ण यह है कि हम वास्तविक अर्थों में अभिवादनशील बनें क्योंकि एक अभिवादनशील व्यक्ति ही अहंकार को छोड़ कर सच्चे अर्थों में झुंक सकता है वरना आज हमारा झुंकना भी एक व्यवसाय हो गया है जिसके मध्यम से हम किसी से कुछ पाने की , कुछ खोने के भाव से बचने की, दूसरों की चापलूसी कर उसे प्रशन्न करने की अथवा भविष्य में किसी भावी लाभ को ध्यान में रखकर संबन्धों की बुनियाद रखने हेतु एक निवेश करने जैसा प्रयास करने लगते है । और तब हम मन में भले सामने वाले को गलियां दे रहे हो, उसकी पीठ पीछे उसे भला-बुरा कहते हो उसके परन्तु सामने ऐसा दर्शाते है कि जैसे हमसे ज्यादा आदर भाव किसी और में हो ही नहीं सकता । और सबसे बड़ी बात इन हालातों में यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम जिसका अभिवादन कर रहे है उसकी औकात , अधिकार , पहुँच कितनी है ? और वो हमारे बारे में क्या सोंचता है ?

मैंने देखा है यह संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जिन्हें अपने माता-पिता,भाई,गुरुजन आदि का होली , दीपावली, ईद , बकरीद जैसे पर्वों पर भी अभिवादन करने कि फुर्सत और तमीज नहीं है मगर अपने लोभ , लालच में वो अपने अधिकारियों , नेतावों , दलालों का प्रतिदिन अभिवादन करते रहते हैं  ।

मगर जब हम अभिवादनशील होते है तब यह फर्क नहीं पड़ता कि हमारे अभिवादन को स्वीकार करने वाला कौन है , उसका सामर्थ्य  क्या है, उसने हमें कोई लाभ पहुँचाया है या नहीं,  और उसके सामने झुंकने पर हमारा मान घट रहा है या बढ रहा है ।

इस प्रकार जिस अभिवादन में कोई लोभ, आकांक्षा, चतुराई, भय अथवा स्वयं के अहम् का तुष्टिकरण नहीं होता है, और जो काल,पात्र,स्थान को देख  कर निर्धारित नहीं होता है वही सच्चे अर्थों में हमारा अभिवादन होता है , हमारी कृतज्ञता होती है उस सबके लिए जो हमें कहीं से भी प्राप्त हुआ है या होना है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?

नफ़रत के जब बीज बो रहे, धर्म ध्वजा के पहरेदार ।
कैसे बचेगी मानवता , यहाँ सब के सब हैं लम्बरदार ।
पहले तो दीवारें उठीं , सब धर्मो के बीचो बीच ।
फिर खिच गयी लकीरे देखो , जाति-पांति के बीचो बीच ।
शेष बचा था जो कुछ देखो , वर्गों में फिर बाँटा गया ।
चुन चुन कर इंसानों को , इंसानों से ही काटा गया ।

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई , बौध-जैन-यहूदी भाई ।
सभी हैं ऊँचे एक दूजे से , सब के सब आवारा भाई ।
सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?
कौन बनाता किसे यहाँ , कौन चलता है इस जग को ?
शायद उनके मध्य भी हो , बँटवारा उनके कर्तव्यों का ।
कोई साझा सरकार बनाकर , सभी चलाते हो इस जग को ।

फिर भी कोई एक तो होगा , जिसने सबको पैदा किया ?
फिर जाने कब क्यों किसने , खायीं मध्य में खोद दिया ।
अब जो बीत गया सो बीत गया , जो आने वाला है वो देखो ।
सत्य गुनो मिल सब धर्मों का , आडम्बर को कचड़े में फेंको ।
काश अगर सब सुन पायें , बस अपने अंतरमन की बात ।
बच जाये ये धरती और , बच जाये मानवता की लाज ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

इस १००वे पोस्ट पर आप सभी से पुन: अनुरोध है..

प्रिय स्नेहीजन ,

       आप सभी के द्वारा प्रदान मनोबल से मै ९९ के फेर से निकल कर अपनी १००वी  पोस्ट आपके समक्ष ब्लागजगत पर प्रस्तुत करने जा रहा हूँ , पूर्व की ९९ पोस्टों में कुछ ब्लाग पर सीधे लिखी गयी नयी रचनाएँ थी तो शेष मेरी डायरी  के पन्नो से सीधे निकलकर आपके सामने आयी थीं
इनमे से कुछ आपको पसंद आयी होंगी, कुछ नहीं पसंद आयी होंगी, और कुछ तो हवा में ही बिखरी-बिखरी नजर आयीं होगी और इसका मुझे भली भांति एहसास है क्योंकि पहले लिखी गयी मेरी कई रचनाये तो आज स्वयं मुझे भी ज्यादा नहीं भाती है मगर क्या करू किस समय क्या लिखता हूँ वो इस बात पर निर्भर होता है की उस समय मेरी मन: स्थित या मनोदशा कैसी है और सामान्यतया किसी दायरे में बँध कर रहना या सोंचना मुझे भाता नहीं तो अपना मान बनाये रखने के लिए अपने मन  से अन्याय नहीं कर सकता , इसी लिए जो भी था, जैसा भी था वो वैसा ही आपके सामने ले आया, और आगे भी यही करता रहूँगा ।
इस अवधि में साथी ब्लागरों एवं  प्रिय स्नेहीजनो ने सदैव मेरा मनोबल बढाया मगर मुझे किसी ने कभी मेरी कमियों पर मेरा ध्यान नहीं दिलाया। चलिए जीवन चलते रहने का ही नाम है ।

आज अपने इस १००वे पोस्ट पर आप सभी से पुन: अनुरोध है कि :-

शब्दों पर ना जाये मेरे, बस भावों पर ही ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे, उसे भूल समझकर टाल दें ।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में, मै शब्दों में नहीं रहता हूँ ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, उसे अपनी जबानी कहता हूँ ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो, या छल और कपट की बातें हो ।
सब राग-रंग और भेष तेरे, बस शब्द लिखे मेरे अपने है ।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत, या समझो तुम इसे फ़साना ।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना ।

आप चाहे जब परख लें, अपनी कसौटी पर मुझे ।
मै सदा मै ही रहूँगा, आप चाहे जो रहें ।
मुझको तो लगते है सुहाने, इंद्र धनुष के रंग सब ।
आप कोई एक रंग, मुझ पर चढ़ा ना दीजिये ।

मै कहाँ कहता की मुझमें, दोष कोई है नहीं ।
आप दया करके मुझे, देवत्व ना दे दीजिये ।
मै नहीं नायक कोई, ना मेरा है गुट कोई ।
पर भेड़ो सा चलना मुझे, आज तक आया नहीं ।

यूँ क्रांति का झंडा कोई, मै नहीं लहराता हूँ ।
पर सर झुककर के कभी, चुपचाप नहीं चल पाता हूँ ।
आप चाहे जो लिखे, मनुष्य होने के नियम ।
मै मनुष्यता छोड़ कर, नियमो से बंध पाता नहीं ।

आप भले कह दें इसे, है बगावत ये मेरी ।
मै इसे कहता सदा, ये स्वतंत्रता है मेरी ।
फिर आप चाहे जिस तरह, परख मुझको लीजिये ।
मै सदा मै ही रहूँगा, मुझे नाम कुछ भी दीजिये ।

हो सके तो आप मेरी, बात समझ लीजिये ।
यदि दो पल है बहुत, एक पल तो दीजिये ।
तारीफ करें ना केवल मेरी , कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे, संज्ञान में मेरी डाल दें ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

पीने दो मुझको भी

पुरनम ना हुयी हो आँखे जब , कैसे नजर हटा लूँ मै ।
जब तक होश है बाकी कैसे , अपनी पीठ दिखा दूँ मै ।
जब साईं मेरा बाँट रहा , क्यों नाप तौल कर आज पिऊ ।
अब आई जशन की बारी है , क्यों खड़ा कहीं एकांत रहूँ ।
देखो आज बहारें भी , छक कर पीने आयीं हैं ।
नील-गगन और धरती भी , मदहोशी को पायीं है ।

पीने दो मुझको भी छक कर , जन्मो का मै प्यासा खड़ा ।
इस पर है मदिरा साईं की , उस पर है रुखा जगत खड़ा ।
जब तक शेष है मै मुझमें , मदहोशी कहाँ आ पायेगी ।
इस छोटे से दिल में कैसे , साकी की जगह हो पायेगी ।
मत रोंको मुझको आज अभी , मिट जाने दो मयखाने में ।
जो आज चूक मै गया कहीं , कई जन्म लगेंगे जाने में ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

नियति निगोड़ी

रूठो ना तुम मुझसे प्रियवर , नहीं दोष इसमें मेरा ।
आ जाऊंगा लौट के मै , जैसे होगा नया सबेरा ।
मै भी आहत हूँ बाणों से , जो नियति के हाथों छूटे हैं ।
घायल है मेरा अंतरमन , कुछ अपने भी मुझसे रूठे है ।
तन तो शायद सह जाता , मन नहीं चोट सह पाया है ।
कुटिल नियति की चालो ने , हमको बहुत सताया है ।

सोंचा था कुछ बातें होगी , गीत सुनेगें तुमसे हम ।
बाँहों में तुमको भरकर , सुन्दर सपने देखेंगे हम ।
लेकिन नियति निगोड़ी को , स्वीकार नहीं है ख़ुशी हमारी ।
रात चांदनी आती उससे , पहले आ गयी जाने की बारी ।
बनकर सौतन तेरी वो, जबरन मुझे बुलाती है ।
मुझको मेरे कर्तव्यों की , सौगंध याद दिलाती है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

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