नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
राजनीत
Sep
17
अपनो पर करम गैरों पर सितम , यही राजनीत बतलाती है ।
जो भी मिले बस लूटे रहो , ये बात हमें सिखलाती है ।
क्या अपना क्या औरों का , जो हाथ लगा ले चलना है ।
अभी हाथ में अवसर है , फिर जाने कब ये मिलना है ।
जो चीज बिके वो बेंचे चलो , जो नहीं बिका उसे लेते चलो ।
ना होगा कबाड़ी वाले को , औने पौने में देते चलो ।
चौराहे जितने खाली हो , बुत अपना वहां लगाते रहो ।
पैसे देकर चमचों से , जिंदाबाद कहलाते रहो ।रोजी रोटी भले ना दो , हवा में तीर चलाते रहो ।
सत्ता स्थिर रखनी हो , सत्ता के दलाल बनाते रहो ।
अपनो पर करम गैरों पर सितम , ये मूल मन्त्र अपनाते रहो ।
जो भी हो बिरोधी उसके मुख पर , कालिख सदा लगाते रहो ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Friday, September 17, 2010 | Labels: अनंत अपार असीम आकाश : http://vivekmishra001.blogspot.com, मेरी कविताएँ, राजनीत, व्यंग बाण |
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
लेखा बही
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