आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

नसीहत....

Sep 17

वक्त की है ये नसीहत , छोड़ दे अभिमान को ।
मत कुचलना तू कभी , किसी गैर के मान को ।
आज तेरा राज है , किसने देखा कल यहाँ ।
एक पल की देर में , है बदलता सब जहाँ ।
दोस्त कब दुश्मन बने , कब बिखर जाये समां ।
सर छुपाने के लिए , जाना पड़े तुझको कहाँ ।

झोपड़े जिनके जलाता , सेंकने को आग तू ।
क्या पता उनके यहाँ , हो शरण को मोहताज तू ।
याद रख इन्सान तू , ये वक्त ही है शहंशाह ।
उसकी मर्जी से ही बनते , और बिगड़ते सब निशां ।
जो भी कर तू सोंच कर , पछताना ना तुझको पड़े ।
सोंच कर बीता हुआ , शर्माना ना तुझको पड़े ।
एक सा बस रह सदा , इंसानियत ना भूल तू ।
वक्त की सुनकर नसीहत , सँभल जा इन्सान तू ।
खो गया अवसर अगर , फिर ना वो मिल पायेगा ।
अभिमान की भरपाई तू , ना अंत तक कर पायेगा ।
गर्व में बोले हुए , हर शब्द पर पछतायेगा ।
मुह छुपकर तू जहाँ से , किस तरह रह पायेगा ।
चाहते हैं हम सभी , ना हालात बिगड़े कभी ।
वक्त ने इन्सान से , कब वादा किया कोई कभी ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 comments:

vishal said...

'नसीहत' आजकल की पीढ़ी के युवाओं को नसीहत के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई। आपकी रचनाओं से ही लगता है बिल्कुल विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी हैं आप।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

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