नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
बदलाव
Sep
16
जीने की कला हम सीख रहे , जीने की चाहत खोकर भी ।मरने की कला हम भूल गए , मरने की चाहत रखकर भी ।वो दौर कठिन था फिर भी हम , औरों को सिखाया करते थे ।ये दौर बहुत ही नाजुक है , अब स्वयं को जानना सीख रहे ।वो उम्र और थी यारों जब , परवानों सा हम जीते थे ।ये उम्र अलग है यारों अब , इंसानों सा हम रहते है ।
देखो कैसे समय निरंतर , धीमे धीमे बदल रहा है ।सभी पुरातन चीजें हमसे , चुपके चुपके छीन रहा है ।भले दिया है उसने हमको , कुछ एक नये उपहार अभी ।कुछ नूतन रिश्तों के पौधे , कुछ कंधों पर नये भार अभी ।लेकिन भुला नहीं हम पाए , उस स्वर्णिम मधुर संसार को ।जीवन मरण के बंधन में फिर , हम सीख रहे व्यापार को ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Thursday, September 16, 2010 | Labels: अनंत अपार असीम आकाश : http://vivekmishra001.blogspot.com, मेरी कविताएँ, राग-रंग |
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
लेखा बही
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1 comments:
bahut pyaari rachna... lat line are just awesome...
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