नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
आज का गब्बर....मच्छर !!
वो एक जमाना था पहले ,
लोग गब्बर के नाम से कांपते थे ।
दूर पचास पचास कोसों तक ,
गब्बर का नाम सुनकर छुप जाते थे ।
तब कहर हुआ करता था गब्बर का ,
हर गाँव-शहर हुआ करता था गब्बर का ।
समय बदला जमाना बदल गया ,
दिलों में खौफ का तराना बदल गया ।
अब है खौफ हर तरफ मच्छरों का ,
हर कोई शिकार होता आज मच्छरों का ।
हालत ये आज हर दवा बेअसर है ,
हर गोली , हर टिकिया सब बेअसर है ।
चीखता है गब्बर पागलों सा आज भी ,
सूअर के बच्चों गिनो कितने है मच्छर ?
कालिया कहता, सरदार गिने तो कैसे ,
जितनी आती है गिनती उससे ज्यादा हैं मच्छर ।
बहुत बेइंसाफी है सरदार ! , मरते नहीं मच्छर ,
अकेली बची है टिकिया और अनगिनत हैं मच्छर ।
तो पचास पचास कोस दूर से ,
अब सुनकर आवाज मच्छरों की ।
छुप जाता है कहीं दुबककर गब्बर ,
बारीक़ जाली वाली मच्छरदानी के अन्दर ।
फिर भी कहाँ छूटता है मच्छरों से पीछा ,
खून के बदले खून ही मांगता है मच्छर ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Wednesday, August 18, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
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