आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

मेरा दीवानापन

आपने पूंछा है हमसे , क्या हम दीवाने थे कभी ।
आपको क्या लगता है , हम है दीवाने अब नहीं ।

दीवानगी के साथ तो , नाता मेरा जन्मों से है ।
दीवानगी के संग ही , गुजरा मेरा बचपन भी है ।
दीवानगी के जोर था, जब बचपन हुवा किशोर था ।
आयी जवानी जब मेरी , दीवानगी का शोर था ।
मै दीवाना ही पैदा हुवा, दीवाना ही मरना मुझे ।
दीवानगी को छोड़ कर, है क्या जिसे करना मुझे।
उम्र है बीती ज्यों-ज्यों मेरी , बदलती रही दीवानगी ।
बँध कर ना जी पाये कभी , हमने सीखी आवारगी ।
तो प्रश्न ही ये व्यर्थ है , जिसका नहीं कुछ अर्थ है ।
दीवाना मै प्रतिपल रहा , किसका यही बस प्रश्न है ।
जिसका मिलना अनिश्चित है , हम क्यों उसके दीवाने हो ।
जो चीज हमें मिलना ही  है , हम क्यों उसके परवाने हो ।
मै हूँ दीवाना उन सब का , जो नाम किसी के हुए नहीं ।
मै हूँ परवाना उन सब का , जिसकी पहचान हुयी नहीं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 comments:

अपनीवाणी said...

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

लेखा बही

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