नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
गिरगिटिया
दूर से देखो तमाशा , पास मत जाओ अभी ।
रंग गिरगिट की तरह , बदलेगा वो आदमी ।
मंदिर से आया अभी , मदिरालय अब वो जायेगा ।
मंदिर से आया अभी , मदिरालय अब वो जायेगा ।
देख लिया जो हमें कहीं, मस्जिद में घुस जायेगा ।
संतो और फकीरों जैसा , चोला वो अपनाएगा ।
आप खायेगा मालपुआ , हमसे रोजे रखवाएगा ।
किसी धर्म जाति से उसका कोई , नहीं दूर का नाता है ।
दिखे जहाँ भी मॉल उसे , बस वहीँ वो आता जाता है ।
काँख में अपने छूरा छुपाये , लिए हाथ में माला है ।
संतो और फकीरों जैसा , चोला वो अपनाएगा ।
आप खायेगा मालपुआ , हमसे रोजे रखवाएगा ।
किसी धर्म जाति से उसका कोई , नहीं दूर का नाता है ।
दिखे जहाँ भी मॉल उसे , बस वहीँ वो आता जाता है ।
काँख में अपने छूरा छुपाये , लिए हाथ में माला है ।
अपनी शातिर नजरो से , शिकार खोजने वाला है ।
रंग देखकर औरों का , वो अपना रंग बदल लेगा ।
रंग देखकर औरों का , वो अपना रंग बदल लेगा ।
अपने मन की चोरी को , फ़ौरन ही वो ढँक लेगा ।
तुम कुछ भी समझ ना पाओगे, अपना सर्वस लुटाओगे ।
तुम कुछ भी समझ ना पाओगे, अपना सर्वस लुटाओगे ।
भांफ ना उसको पाओगे , फँस जाल में उसके जाओगे ।
है यही सीख मेरी तुमको, तुम खड़े ओंट में कहीं रहो ।
है यही सीख मेरी तुमको, तुम खड़े ओंट में कहीं रहो ।
गिरगिटिया रंग दिखायेगा , केवल तमाशा देखते रहो ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Tuesday, August 31, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'




1 comments:
अच्छी पंक्तिया है ......
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/
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