आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

एकै साधे सब सधे

साथियों

              आज हर तरफ भ्रष्टाचार,लूट-घसोट  का बोलबाला है, हर कोई इससे व्यथित है। जिसको देखो वही कहता है कि फलां विभाग में बड़ा भ्रष्टाचार,लूट-घसोट का बोलबाला है मगर उसी व्यक्ति जब उसके अपने कार्य-क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार,लूट-घसोट के बारे में पूंछो तो वो अपना मुह घुमा लेता है या मात्र मुस्कुराकर रह जाता है ।

प्रशासन से लेकर शासन तक के सभी जिम्मेदार अधिकारी,पदाधिकारी सदैव यही कहते है कि वो लगातार (नीचे व्याप्त) भ्रष्टाचार को कम करने का प्रयास कर रहें है मगर भ्रष्टाचार है कि कम होने का नाम ही नहीं लेता है।
आखिर क्यों ?
कहाँ किस स्तर पर कमी रह जा रही है भ्रष्टाचार का नाश करने में ?
कहीं हमारा प्रयास " पर उपदेश कुशल बहुतेरे " वाला तो नहीं है ?

तो जनाब
ये जगत का नियम है कि धारा प्रवाह की दिशा सदैव ऊपर से नीचे की तरफ होती है।

अत: यदि श्रोत निष्कलंक हो तो मध्य या अंत में चाहे जितना मिलावट क्यों ना हो जाय , पूरी धारा को कभी पूर्णतया कलुषित नहीं किया जा सकता है क्योंकि पवित्र उदगम लगातार नयी उर्जा , नयी शक्ति और पवित्रता का प्रवाह करता रहता है जिसके संचरण से मार्ग में होने वाले परिवर्तन कभी स्थाई स्वरुप नहीं लेने पाते है ।

परन्तु

यदि उदगम ही दूषित,जहरीला हो जाय तो पूरी धारा दूषित हो जाएगी और कोई लाख कोशिश  करे,वो कछारों पर पवित्रता नहीं बनाये रख सकता क्योंकि वो उदगम का स्वरुप नहीं बदल पायेगा ।

और ये सिद्धांत केवल नदी, झरनों पर ही नहीं वरन मानव समाज पर भी लागू होती है ।

अत: यदि भ्रष्टाचार को समाप्त करना है तो देश,समाज,धर्म  के शीर्ष  शिखर पर बैठे लोगों को पहले अपनी पवित्रता बनाये रखना होगा और फिर कहा गया है कि "एकै साधे सब सधे,सब साधे सब जाय" ।


                                                     © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

लेखा बही

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