आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

एक पड़ोसी जनता की पाती एक पड़ोसी जनसेवक के नाम

सेवा में 
        स्वं-घोषित विकास पुरुष नितीश कुमार जी

वैसे तो आप मुझे जानते नहीं होंगे तो मै आपको बता दू कि मेरा आपका रिश्ता पड़ोसी जनता और पड़ोसी जनसेवक वाला है क्योंकि मै आपकी सीमा से सटे (सीमा का अर्थ दायरे से ले ना कि किसी महिला मित्र का नाम ) उत्तर प्रदेश जिसका (इसका दूसरा नामकरण भैया प्रदेश के रूप में उन बीर मराठों ने किया है जिनके शासक के बारे में इतिहास बताता है की वो हमेशा मारो और भागो की निति पर काम करते थे और एक बार पकड़ में आ जाने पर एक राजा को तो औरंगजेब ने मरवाकर छोटे छोटे टुकड़ों में कटवाकर मांस कुत्तों को खिलाया था)  की जनता हूँ और आप इससे सटे-सताए दूसरे भैया प्रदेश के  राजा है।

तो पहले मुझे अपने व्यस्तताओं के कारण बिलम्ब से पत्र लिखने हेतु क्षमा कीजियेगा। आशा है आपका स्वस्थ और हाल (हवाला)-चाल ठीक-ठाक ही होगा क्योंकि अभी तक तो सी.बी.आई आपका स्वस्थ पारीक्षण करने नहीं ही गयी है।

तो प्रिय 'जन सेवक' जी, कृपया पहले तो आप इस 'जन सेवक' वाले संबोधन से नाराज ना होना क्योकि मूलत: जन सेवक पुराने बाबा-आदम के गाय और भैस के दूध से बने देसी घी वाले ज़माने में उसे कहते थे जो जनता की निश्वार्थ भाव से सेवा करते थे और बदले में कुछ भी नहीं लेते थे ।
परन्तु
आजकल हमारे-आपके ज़माने में जब जानवरों और इंसानों की हड्डियों को आग में तपकर चर्बी से असली वाला नकली देसी घी बनाया जा रहा हो तो वो पुरानी बात कहाँ, अब तो वही असली जन सेवक वही है जो जनता से निश्वार्थ भाव से अपनी सेवा करवाए और बदले में उसको कुछ भी ना दे।

ब्रेक...........
                                 सीसी भरी गुलाब की , पत्थर पर पटक दिया।
                                 बेशर्म सीसी तो ना टूटी ,  पत्थर चटक गया ।।
नोट :- कुछ ऐसा ही जुमला पहले के ज़माने के अधिकांश पत्रों में लिख जाता था मगर काल समय के अनुसार मैंने पुरातन को आज के स्वरुप के साथ लिखा है।

अब  मै पत्र आगे लिखता हूँ-
दो-चार दिन पहले अखबार के माध्यम से  में एक सचित्र समाचार छपा था जिसमे फोटो में एक महिला विधायक नचा-नाचकर, शब्दों पर जरा ध्यान दीजियेगा कहीं अर्थ का अनर्थ ना हो जाय, तो महिला विधायक नाच-नाच कर नहीं वरन नचा-नचा कर विधानसभा भवन के प्रवेश द्वार पर रखे गमलो को पटक रही थी और बाकी के  फोटास रोग (फोटो खिचवाने हेतु लालयित रहने वाला रोग) से पीड़ित सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायक (साथी गायक, वादकगण और दर्शकगण) उन्हें घेर कर तमाशा देख रहे थे।

हो सकता है कि दूरदर्शन चैनलों पर इस सब का सीधा प्रसारण भी आया हो क्योंकि आजकल बच्चो को बचपन से ही उच्च पेशेवर ज्ञान देने के लिए सदन की कार्यवाही कभी कभी सीधा प्रसारित भी किया जाता है पर मै अ-भागा कहीं और धान कूटने के चक्कर में उसे देखने से चूक गया।



खैर जब समाचार को देख कर मन भर गया (दुखी होने वाला नहीं वरन आँख सकने वाला) तो समाचार पढना शुरु किया तब ज्ञात हुआ कि असल मामला किसी बड़े संभावित  घोटाले का है जिसके कारण ये हंगामा हुवा। अब आप ही बतायिये बाढ़ जैसे आपदा के समय  जब राहत कार्य हेतु तत्काल चारा (मानवों का) ढोया जाना हो तो उसमें कौन बैठ कर पहले जांच करे कि गाड़ियों का नंबर, दो-पहिया वाहनों का है ना कि चार पहिया वाहनों का ?  और अगर दो-पहिया वाहनों का प्रयोग कर ही लिया गया तो यह तो अवसर के संवेदनशीलता  को देखते हुए राहत कर्मियों के तत्परता से निर्णय लेने का मामला है जिसके लिए उन्हें पुरस्कार ही मिलना चाहिए।

और आपके पहले के शासन में जानवरों के चारे का घोटाला हुआ था , तो आप तो विकास पुरुष है आपके राज में प्रगति तो होनी ही चाहिए ना , आखिर प्रगति कर के ही जानवर से मानव बना है ना।

और सदन के अन्दर सभापति पर जिस किसी नेता ने एक चप्पल फेंका था उसे उसका दंड भी मिल गया है, वो बेचारा सदन में मचे भागम भाग में अपनी मंदिर से चुरायी चप्पल को वापस भी नहीं प्राप्त कर सका और दुखी मन से दूसरी को रोड पर फेंककर बिना चप्पल के ही घर गया, हो गया गरीबी में आँटा  गीला । 
                                                 चप्पल चली बिहार में , हुवा सदन में हाहाकार।
 नेता को नेता ने पीटा , ये कैसा है अत्याचार ?
खुला पिटारा लूट का, मिला नहीं सबको हिस्सा।
मौसेरे भाई ने खोला, मजबूरन ये सारा किस्सा। खैर अब जो हुआ सो हुआ पर मेरी तरफ से आपको मुक्त-कंठ से ढेर सारी बधाई स्वीकार हो।


बधाई इस बात की, कि अंतत: आपके शासन काल में एक लंबे अंतराल के बाद शायद बिहार पुन: अपना पुराना स्वरुप वापस पाने जा रहा है (यहाँ मै चक्रवर्ती महाराजा अशोक के ज़माने के बिहार के पुराने स्वरुप की बात नहीं कर रहा हू वरन आपके पुराने सखा आदरणीय लालू जी और जगन्नाथ मिश्र जी के ज़माने की बात कर रहा हूँ जिनके साथ आपने राजनीत का क , ख , ग सीखा था), और हम सभी नाहक ज्यादा दिन हैरान परेशान होने से बच गए कि क्या हो गया बिहार को, कैसे वो पलट गया मौसमों की तरह ।

और ये चप्पल वगैरा चलाने की तो आप चिता ही मत करियेगा, चप्पल वाले नेता लोग बेचारे अभी भी गरीबी की रेखा के नीचे ही जी रहे है और कभी कभी अपना दुःख इस तरह से प्रकट करते है वर्ना आजकल अमीर देशों के नेता लोग जूता पहनते है और उन पर जानता भी जो ज्यादा ही अमीर है जूता ही फेंकती है।  वैसे हमारे प्रदेश के सदन में तो कुछ साल पहले कुर्सी और माइक भी चल चुका है और बीर-मराठे तो सदन में थप्पड़ भी चलाते है।

वैसे विकास पुरुष जी आप तो अत्यंत ही समझदार है, (तभी मलाई खा लेने के बढ अब भाजपा से पिंड छुडाने की सोंच रहे है)  इसलिये आप को ज्यादा क्या कहना बस लगे रहिये आखिर आपको भी तो आगे चुनाव लड़ना है, उसका खर्च-पानी कहाँ से आएगा ? , जनता तो अपने मन से देने से रही, उसे जाति धर्म , भाषा के नाम पर मूर्ख बना कर धोखे से लूटना ही पड़ता है। तो लगे रहे जन सेवक जी , डिगे ना अपने काम से।

"ईमान" का क्या है वो तो होता ही है बिकने के लिए वर्ना उसमे नमक , तेल , मसाला डालकर अंचार थोड़े ही बनाया जाता है । तभी तो मै कहता हूँ -




"जब पूंछते है लोग हमसे , कब बेंचना ईमान है ?
मै ये कहता हूँ सभी से , हर पल बिकाऊ ईमान है ।
शर्त ये जो भाव हो , पाया ना कोई आज तक ।
मेरा मोल दे दो मुझे , सब खोंल दूंगा राज तक । 
हर चीज बिकती है यहाँ , खेल है सब भाव का ।
कौन क्या ले पायेगा , ये खेल नहीं है ताव का ।
कौन देता दाम है , कुछ भी बिना जांचे यहाँ ।
तो क्यों कोई कुछ बेंच दे, घाटे में अपना यहाँ ।
जिस छण मुझे मिल जायेगा, मोल मेरे भाव का। 
सौदा करने को मै राजी , हो जाऊंगा ईमान का।
व्यर्थ झिकझिक ना करो, यदि दाम ना हो पास में । 
मुहमाँगा भाव ना मिला तो, इमानदार मै रहूँगा।।"


आप की एक पड़ोसी जनता


तो इन्ही शब्दों के साथ जय-राम जी की।

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

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