आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

देवता बनने की चाहत।

 देवता बनने की चाहत , क्यों छुपाये मन में हों।
 ठीक से देखो जरा ,   क्या मनुज बन पाये हों ?


 लोभ के दलदल में ,   तुम धंसे हों इस समय ।
 वासना के जाल   को ,  काट पाये  किस  समय ?


 जब  लूट कर गैरों को ,  बाँटते अपनो में हों ।
 फिर पाप के बीज से  ,  चाहते  क्यों  पुण्य हों ?


कलुषित है मन अगर , व्यर्थ है चन्दन का टीका ।
कर्म अगर विपरीत हों, प्रवचनों का है मर्म फींका ।


केवल पोथी रटकर ही, धर्म का अर्थ है किसने जाना ?
छुधा कहाँ मिट पाती है ,  बिना पेट में जाये दाना ??


दौड़ जीतने के पहले , तुम्हे सीखना होगा चलना ।
देवतुल्य बनने से पहले, दानव से मानव है बनना ।
                           
                      © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 comments:

ana said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति........नइ सोच

वन्दना said...

सही कहा……………सुन्दर प्रस्तुति।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

लेखा बही

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