नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
दिल्ली चलो
दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली अभी भी दूर है ।
जो मिली "आजादी" हमको , वो बड़ी मजबूर है ।
अब भी चलता है यहाँ , शासन किसी और का ।
नेता हमारे हैं मगर , फैसला किसी और का ।हों चुकी है हरित-क्रांति , सोना उगलते खेत है ।रोज लहराते 'तिरंगा' , पर नहीं बनता निशां ।
हिंद को ही भूलकर , 'जै-हिंद' हम कहते यहाँ ।
आपस में ही लड़ रहे , फिर बाँटने को देश हम ।
क्या करे नेताओं को , रह गया है काम कम ।
फिर भी देखो भूँख से, मर रही जनता यहाँ की ।
कहीं उफनती है नदी , है कहीं पड़ा सूखा पड़ा ।
कौन लेगा देश हित मे , कब कोई फैसला कड़ा ।
(भारत को पुन: नवीन क्रांति की जरुरत है...........क्या आप तैयार हैं निडरता के साथ..? )है यहाँ 'हिन्दू' कोई , कोई 'मुस्लिम' है यहाँ ।दिल्ली चलो,दिल्ली चलो दिल्ली अभी भी दूर है ।
नारा दिया था जिसने हमको, वो कहीं अब दूर है।
माँगा था उसने हमसे तब, खून की कुछ चंद बूंदें।
पर बहाया उसको हमने , घर के आंगन में कहीं।
सिख हैं कुछ लोग तो , 'ईसाई' भी रहते यहाँ ।
क्या जन्म लेगा देश में , कोई 'भारतीय' कभी?
या सोवियत-संघ की तरह, देश बिखरेगा अभी ?अफसोस है अफ़सोस है , देश फिर भी खामोश है।कब तलक सीमाओं पर, अपमान हम सहते रहेंगे।
कब तलक इस देश में, यूँ भष्टाचारी पलते रहेंगे ।
रोज अगणित ढल रही,टकसाल में मुद्रा यहाँ की।
फिर भी देखो चल रही,बाजार में मुद्रा कहाँ की ?
मर गए है लोग सब , या हैं नशे में धुत पड़े ?
दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली अभी भी दूर है।
जो मिली आजादी हमको , वो बड़ी मजबूर है ।माँगती है जन्मभूमि , फिर कुछ नए बलिदान को।आवो चल कर फिर करें , हम इकठ्ठा खून को ।
खेतो में फिर से उगायें , क्रांति के नव-सूत्र को ।
झिझकोर कर हम जगाएं,फिर देश के नौजवाँ को।
क्रांति की घुट्टी पिलाये , देश के सब नौनिहाँ को।
आवो मिलकर हम सजाये , फिर नए संग्राम को ।
आगे बढ़कर हम बदल दें , विश्व के भूगोल को ।
और ढहा दे दासता के , शेष बचे अवशेष को ।हमने समझा था जिन्हें , ये देश के है पहरूवा ।पर ना देखो चूक जाना , तुम कहीं फिर भूल से ।
देश को रखना बचाकर , अब भेड़ियों के झुण्ड से ।
पहले भी जीती थी हमने , अपने जाँ पर बाजियां ।
अफ़सोस हमने सौंप दिया, कुछ गीधड़ो को हस्तियां।
अब वतन आगे बढेगा , अब वतन आजाद है ।
रोंक पाये वो ना अपने , अंतर्मन के लोभ को ।
देश को गिरवी रखा , बेंच कर स्वाभिमान को ।तो चलो हम प्राण करें , अब वतन आजाद होगा ।
कौमें जो रहती यहाँ, उनको वतन पर नाज होगा ।
देश में मुद्रा हमारी और, फैसले सब अपने होंगे ।
फिर ना कोई संघर्ष होगा, ना कोई बलिदान होगा।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Monday, July 26, 2010
|
Labels:
अनंत अपार असीम आकाश : http://vivekmishra001.blogspot.com,
कटाक्ष,
जन-संवाद,
प्रश्नकाल,
मेरी कवितायेँ,
राष्ट्र,
समसामयिक
|
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


ब्लागाचार by विवेक मिश्र "अनंत" is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.
Based on a work at vivekmishra001.blogspot.com.
Permissions beyond the scope of this license may be available at http://vivekmishra001.blogspot.com.
अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
1 comments:
बीस प्रतिशत भारतीय जो आप जैसा सोच रखते है एकजुट होकर सर पर कफ़न बांधकर अपने गांवों और मुहल्लों में देश व समाज को बदलने के लिए एक नई शुरुआत की पहल करे तो दिल्ली भी बदल जाएगी और दिल्ली में बैठे भ्रष्ट उच्च संबैधानिक पदों पे बैठे लोग भी ..क्या आप तैयार हैं निडरता के साथ..?
Post a Comment