नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
दैहिक दैविक
बल से मिटा सकते हैं हम , बल से झुंका सकते है हम ।
बल से किसी भी कार्य को , जबरन करा सकते है हम ।बल नहीं तो कुछ नहीं , ना शांति होगी ना प्रगति ।
बल बना सकता है दास , मनुष्य के शारीर को ।
ना विजय का हर्ष होगा , ना सही होगी नियत ।पर क्या यही ध्रुव सत्य है , बल ही परम तत्व है ?
बल से कहाँ जुड़ता कोई , होता हमें बस भ्रम है ।
और कुछ हद तक कहें , मनुष्य के मष्तिष्क को ।पर समर्पण की समग्रता , भावनाओं से है आती ।
कार्य के परिणाम को , वो शिखर पर है पहुँचाती ।हर लक्ष्य को अपना बनाकर , संघर्ष ह्रदय से करवाती ।
निज-सामर्थ का अतिक्रमण कर , समूह बल वो बन जाती ।।
Saturday, September 04, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
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