नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
मानवी महामाया
Sep
15
आँखों देखी बातें सारी , नहीं हकीकत होतीं है ।
मानव की माया देख अचंभित , ईश्वर की माया होती है ।
व्यूह बनाकर अपने से , मानव स्वयं को फँसाता है ।
निज स्वार्थ सिद्ध करने को , जाने क्या क्या ढोंग रचाता है ।
कातर स्वर में मदत मांगता , मन में मंद मंद मुस्काता है ।
कांटे में ज्यों चारा लगाकर , कोई मछली फँसाता है ।
फिर एक समय वो आता है , जब कोई ढाल बन जाता है ।
चक्रव्यूह में उसे फँसाकर , स्वयं बाहर निकल वो जाता है ।
अपनी माया के बल पर , मानव ईश्वर को छल लाता है ।
दृष्टि-भ्रम का जाल बिछा , वह बलि का बकरा सजाता है ।
स्वयं करता नहीं वो वफ़ा मगर , औरों से आस लगता है ।
आँखों देखी बातों औरों की , वो दृष्टि-भ्रम बतलाता है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Wednesday, September 15, 2010 | Labels: अनंत अपार असीम आकाश : http://vivekmishra001.blogspot.com, दर्शन, मेरी कविताएँ, राग-रंग, व्यंग बाण |
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
लेखा बही
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