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कल्कि पुराण - सतयुग,द्वापर,त्रेता,कलयुग

सतयुग,त्रेता,द्वापर,कलयुग , बस चार युगों का जीवन है ।
सत है प्रथम और कलि अंतिम , त्रेता द्वापर मध्य में है ।
हर एक काल अपने में विशिष्ट , मानव जैसा ही किलिष्ट ।
हर युग ये दर्शाता है , जीवन कैसे बदलता जाता है ।
वो 'सतयुग' था जब धरती पर, प्रज्ञा का पहला उदय हुआ था ।
कोई चार शीश का प्राणी था , कोई स्रहस भुजाओं वाला था ।
सत था सच्चा और पहला भी , वो चार पैर पर चलता था ।
लोभ,मोंह और त्याग की बातें , नहीं समझ वो सकता था ।
फिर आया 'त्रेता' युग आगे , जो तीन पाँव पर चलता था ।
लोभ,मोंह और त्याग की बातें , पूर्ण समझ वो सकता था ।
तब मानव थे,कुछ दानव थे , कुछ वानर थे कुछ रीछ वहां ।
कुछ सतयुग के थे शेष बचे , कुछ त्रेता युग की देन वहां ।


फिर दो पैरों पर 'द्वापर' आया , जिसने विकसित मानव पाया ।
ख़त्म हुयीं संक्रमण जातियां , हो गया विभाजन नर, वानर का ।
फिर मानव ने खोई मानवता , कल-पुर्जों वाला कलयुग आया ।
आधा मानव , आधा कल , ये मानव का अंतिम युग आया ।
अब लेंगे 'कल्कि' अवतार जब , मानव 'रोबोट' बन जायेगा ।
प्यार,मोहब्बत , अपनापन , सब कुछ भूल वो जायेगा ।
होगा विध्वंस मानवता का , सतयुग फिर से आयेगा ।
धरती माँ को फिर से उसका , वैभव प्राप्त हो जायेगा ।।
( अथ कल्कि पुराण द्वित्तीय अध्याय समापनं)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

लेखा बही

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