नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
हवस तो हवस है
हवस इन्सान को शैतान बना देती है ,
अच्छे और बुरे का वो भेद मिटा देती है ।
आदमी को आदमी का शिकार बना देती है ,
औरों की लाशों पर महल बना देती है ।हवस में सोंचने की बात कहाँ होती है ,
हवस को चाहिए हर समय कोई शिकार ,
अपने पराये की पहचान कहाँ होती है ।
इसमे तो जितना डूबो वो भी कम है ,
टूटते रिश्तों का होता कहाँ गम है ।हवस शैतान की भूँख को जगती है ,
हवस तो हवस है साध्य चाहे जो हो ,
मन में हैवानियत का भाव वो उठती है ।
जुर्म और जरायम का बाजार वो चलती है ,
इन्सान की जरूरते अनंत तक बढ़ाती है ।
व्यक्ति से वस्तु तक साधन चाहे जो हो ।
भले वो पेट की हो लाचार हवस ,
या फिर जिस्म की रूपसी हवस हो ।
खेल कर जिससे हो सके वो फरार ।
रिश्तों और भावना की उसे है फ़िक्र कब ,
हर तरह की भूँख से उसका है करार ।
Monday, September 20, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
4 comments:
बिल्कुल सही परिभाषित किया..हवस में इन्सान इन्सान नहीं रह जाता.
बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....
बहुत सुन्दर...हवस में इंसान इन्सान कहाँ रहता है?....
nice
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