नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
एतिहासिक घृणा
बचपन की कहानियों में , और जंतु बिज्ञान की किताबों में ।
इस बात का जिक्र होता है , आदमी का जानवरों से पुराना रिश्ता है ।
थे आदम के पुरखे जो , चार पैरों पर चलते थे ।
नोंच कर वो औरों को , अपना पेट भरते थे ।
घूमते थे नग्न वो , था नहीं रिश्ता कोई ।
मनुष्य को मनुष्य ही , था नहीं जँचता कोई ।
सदियों पहले की बात है , जानवर बन गया आदमी ।
सदियों पहले की बात है , जानवर बन गया आदमी ।
दो पैरों पर चलने लगा , शिकार हाथ से करने लगा ।
जन्म शर्म को उसने दिया , वस्त्रों का अविष्कार किया ।
अपना अधिकार जताने को , परिवार का उसने रूप दिया ।
पूंछ छिपाकर अन्दर की , दांत घटाकर छोटा किया ।
मगर मिटा ना पाया वो , औरों के प्रति अपनी घृणा ।
गुजरी हुयी सदियों में , उसने बहुत कुछ सीखा है ।
कैसे सजाकर प्लेट में , माँस को चिचोड़ा जाता है ।
कैसे दिन-दहाड़े राह में , अस्मत को लूटा जाता है ।
कैसे पहनकर वस्त्रो को , नग्न दिखा जाता है ।
कैसे झुका कर घुटनों पर , औरों को जीता जाता है ।
कैसे आधुनिक रूपों में , घृणा छिपाया जाता है ।
अपनी घृणा छिपाने को , उसने तरकीबे खोजी बहुत ।
कपडे सुन्दर बनवाये , आभूषण तन पर सजवाये ।
बाल सवाँरे उसने अपने , धर्म चलाये उसने कितने ।
मानवता-भाईचारे का , स्वांग रचाया सबसे मिल कर ।
लेकिन अपने अंदर की , घृणा मिटा ना पाया वो ।
घृणा की आग में तपकर , पत्थर दिल बन पाया वो ।
Friday, September 10, 2010
|
Labels:
अनंत अपार असीम आकाश : http://vivekmishra001.blogspot.com,
गिद्ध साहित्त्य,
मेरी कविताएँ
|
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण
ब्लागाचार by विवेक मिश्र "अनंत" is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.
Based on a work at vivekmishra001.blogspot.com.
Permissions beyond the scope of this license may be available at http://vivekmishra001.blogspot.com.
अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
1 comments:
अच्छी पंक्तिया है .....
अच्छा लिखा है ....
एक बार इसे भी पढ़े _:-
( बाढ़ में याद आये गणेश, अल्लाह और ईशु ....)
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_10.html
Post a Comment