आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

फिर वही तिरंगा..!

फिर आज चले लहराने तुम , लालकिले पर वही तिरंगा ।
जिसकी कसमें खाकर जाने , कितने क्रांति के बीज उगे ।
जिसकी छवि आँखों में रखकर ,  बेंत चंद्रशेखर ने खाए ।
जिसकी खातिर असेम्बली में , भगतसिंह बटुकेश्वर ने पर्चे लहराए ।
जिसकी खातिर बिस्मिल ने , काकोरी में लूटा था ट्रेन ।
जिसकी खातिर असफाक ने , दे दी  यौवन की क़ुरबानी ।  

जिसकी खातिर भेष बदल कर , जीने को विवश सुभाष हुए
जिसकी खातिर सर्वस लुटाकर, गोली अपनों की खायी गाँधी ने ।
बोलो क्या अब तक हम कर पाये , पूरे उनके सपनो को ???
या फिर पाल कर भ्रम को केवल , जीते रहे हम सपनों को ???
है भले देश में अपनी सत्ता , लेकिन हम क्या कर पाये है ?
भूँख , अशिक्षा, बेरोजगारी,बीमारी  का, क्या हम हल दे पाये है ?

लुटी जाती अस्मत अब भी , अब भी जलती बहुएं है ।
भींख मांगता बचपन है , और वही अपाहिज बुढ़ापा है ।
सौतेली है अब भी वो भाषा , जो राष्ट्र भाषा कहलाती है । 
सत्ता के चारो खम्भों पर , भारत मां रोती जाती  हैं ।
लूट घसोट मची है हर दिन, भ्रस्टाचार में सब कोई रंगा।
फिर भी देखो फहराने चले, लाल किले पर आज तिरंगा ।

 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 comments:

शहरोज़ said...

sundar desh bhakti se labrez geet !

अंग्रेजों से प्राप्त मुक्ति-पर्व ..मुबारक हो!

समय हो तो एक नज़र यहाँ भी:

आज शहीदों ने तुमको अहले वतन ललकारा : अज़ीमउल्लाह ख़ान जिन्होंने पहला झंडा गीत लिखा http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_14.html

Udan Tashtari said...

बढ़िया!!

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ.

सादर

समीर लाल

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

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