आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

आप चाहे जब परख लें....


१.

आप चाहे जब परख लें, अपनी कसौटी पर मुझे ।
मै    सदा   मै    ही   रहूँगा ,  आप  चाहे   जो   रहें ।
मुझको आता है नहीं , मौसमो की तरह बदलना ।
आप   चाहे  रोज   ही ,  मेरे   कपड़ों   को    बदलिए ।
मै   कहाँ कहता   कि  मुझमें ,  दोष कोई   है नहीं ।
आप   दया  करके  मुझे ,  'देवत्व'  ना दे दीजिये ।
मुझको लगते है सुहाने , इंद्र-धनुष के रंग सब ।
आप कोई एक रंग  ,  मुझ पर चढ़ा ना दीजिये ।
हो   सके  तो  आप  मेरी ,  बात   समझ लीजिये ।
गर दो  पल है  बहुत  ,  एक   पल   तो    दीजिये ।
.
मै नहीं नायक कोई , ना मेरा है गुट कोई ।
पर भेड़ो सा चलना मुझे , आज तक आया नहीं ।
यूँ क्रांति का झंडा कोई , मै नहीं लहराता हूँ ।
पर सर झुककर के कभी , चुपचाप नहीं चल पाता हूँ ।
आप चाहे जो लिखे , मनुष्य होने के नियम ।
मै मनुष्यता छोड़ कर , नियमो से बंध पाता नहीं ।
आप भले कह दें इसे , है बगावत ये मेरी ।
मै इसे कहता सदा , ये स्वंत्रता है मेरी ।
फिर आप चाहे जिस तरह , परख मुझको लीजिये ।
मै सदा मै ही रहूँगा , मुझे नाम कुछ भी दीजिये ।
3.
मै हूँ दर्पण के जैसा , जिसमे दिखेगा रूप तुम्हारा ।
जैसे चाहोगे मुझे देखना,वैसा पाओगे रूप हमारा ।
मै ना बा-वफ़ा किसी का , ना होता बेवफा कभी ।
तुम जो भी चाहो समझो मुझे , मै हूँ खड़ा यहीं ।
यूँ मानव संग मै मानव हूँ, दानव मिले तो दानव हूँ ।
सज्जन हित सज्जनता है, दुर्जन की खातिर दुर्जनता ।
लोभी संग मेरा लोभ जगे, त्यागी संग संसार त्याग दूँ । 
चोरों के संग चोर बनू , शाहों के घर का मै रखवाला ।
कुटिलो हेतु कुटिलता मुझमें, अपनों हित है भाई-चारा ।
जो भी जैसा मिले मुझे , बस उसके जैसा रूप हमारा ।

 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" TW9SM3NGHMG

2 comments:

nilesh mathur said...

यूँ क्रांति का झंडा कोई , मै नहीं लहराता हूँ ।
सर झुककर के भी, मै चुपचाप नहीं चल पाता हूँ।

कमाल कि पंक्तियाँ है, बहुत ही सुन्दर!

honesty project democracy said...

विचारणीय प्रस्तुती...

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

लेखा बही

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