नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
स्वंबली ही है बलशाली
जिन्हें चाहिए बल औरों का , वो पूजा करें बलवानों का ।
मुझको अपने बल का भरोसा, क्यों मान रखूँ अभिमानों का ।
जो लोग पूजते हैं उनको , जो हों चढ़ते सूरज की तरह ।
वो क्या आश्रय देंगे तुम्हे , तुम ढलते हुए सूरज की तरह ।
वो स्वं निर्भर हैं औरों पर , औरों से बल पाते हैं ।
औरों के बल पर अब तक , कौरव बनकर जी पातें हैं।
जो लोग बनाते सूरज है , वो लोग ही बल दे पातें हैं ।
निज बुद्धि और बाहुबल से , रक्षित जग को कर पातें हैं ।
चाहे जितने बलशाली हों , ये शूर-वीर कौरव दल के ।
नहीं टिके हैं नहीं टिकेंगे , पांडव के आगे छल बल से।
ये कथा नहीं महाभारत की ,हर युग का लेखा-जोखा है ।
स्वंबली के बल के आगे, पराश्रितों ने घुटना टेका है।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Friday, July 30, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'




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