नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
ईश्वर बनाम बेईमान सूदखोर
हे भगवान , क्या आप किसी बेईमान सूदखोर के समान है ?
मुझे क्षमा करे (हालाँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में मै कुछ गलत कर रहा हूँ) कि "मै आपकी तुलना किसी बेईमान सूदखोर से कर रहा हूँ और मेरे इस किये जाने वाले पाप को मेरे पाप-पुण्य के खाते में ना डाले।
अगर ऐसा नहीं हो सकता है तो आपसे अनुरोध है कि इसका फल (यदि मेरा कथन सत्य है तो मेरा इनाम अथवा यदि मेरा कथन असत्य है तो सही वस्तुस्थित का ज्ञान) मुझे तत्काल प्रदान करने कि कृपा करें।
अगर ऐसा नहीं हो सकता है तो आपसे अनुरोध है कि इसका फल (यदि मेरा कथन सत्य है तो मेरा इनाम अथवा यदि मेरा कथन असत्य है तो सही वस्तुस्थित का ज्ञान) मुझे तत्काल प्रदान करने कि कृपा करें।
क्योकि
- मै जितना ही और अधिक हिन्दू धर्म और उसके पाप पुण्य के उपदेशों का चिंतन मनन करता हूँ ,
- आपके इच्छा के विरुद्ध कुछ भी घटित ना होने के सिद्धांत को सुनता और स्वीकार करता हूँ,
- आपकी परम सत्ता को स्वीकार कर उसमें अपनी आस्था रखता हूँ,
- आपके कर्म फल,भाग्य,प्रारब्ध और उसके जन्मो-जन्मो तक चलने वाले चक्र के बारे में सोंचता हूँ,
उतना ही अधिक मुझे आप किसी बेईमान सूदखोर में समानता नजर आती जाती है !
जिस प्रकार
एक बेईमान सूदखोर कभी सच्चे मन से अपने मूल को वापस पाकर देनदार के खाते को बंद करने का प्रयास नहीं करता है वरन सदैव मूल पर सूद और सूद पर भी आगे सूद जोड़ कर खाता रहता है और प्रयास करता है कि उसका लेन देन का खाता जीवन पर्यन्त पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार पिता से उसके पुत्र और आगे पौत्र आदि तक चलता रहे।
उसी प्रकार
हे ईश्वर आप भी तो अपने प्राणियों के द्वारा किये गए कर्मो का हिसाब किताब उसका जीवन समाप्त होने के बाद भी चलाते रहते है। कभी व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के पितृ ऋण , कभी मात्री ऋण, कभी गुरु ऋण, कभी भ्राता ऋण तो कभी स्वं ऋण आदि ना जाने कितने ऋण के बंधन से बंधा रहता है। और यह हिसाब किताब भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है ।
पुनः देखे
जिस प्रकार एक कर्जदार पिता का पुत्र स्वं कर्ज ना लिए होने के बाद भी अपने पिता की मृत्यु के बाद उसके कर्जो को पाटता है उसी प्रकार एक नया जन्म लेने वाला बालक भी तत्काल अपने पूर्व जन्म के कर्जो को अपने नवीन जन्म में चुकता करना प्रारंभ कर देता है ।
माना कि
जो "बोया है वो काटेंगे" या "जैसा कर्म करेंगे वैसा फल पाएंगे "संसार का नियम है और उसी के अनुरूप अच्छे का फल अच्छा और बुरे का बुरा फल मिलाता है ।
मगर
मेरे परमात्मा क्या आप बता सकते है कि एक दुधमुहा बच्चा पैदा होने कि प्रक्रिया में क्या कर्म करता है जिसके कारण कोई बालक किसी अमीर घर में पैदा होकर सोने चांदी के बर्तन से दूध पीता है तो कोई साधारण घर में पैदा होकर जीवन की अत्यंत ही सामान्य प्रारंभ पाता है। और तो और किसी को तो यह भी नहीं नसीब होता है और उनकी माये उन्हें किसी सडक या सुनसान जगह पर बिना उसकी जीवन मरण का ध्यान छोड़ जाती है ! तो पैदा होते ही अलग अलग परिस्थितियां क्यों?
- जब आपने ही इस संसार की और मानव की रचना की और आप अभी भी इतने सर्वशक्तिमान है कि आपके इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता या उसका फल प्राप्त नहीं हो सकता (पौराणिक काल से ही कहा जाता रहा है कि "हरी इच्छा बिन हिले ना पत्ता") तो कैसे कोई मानव गलत कार्य की तरफ अग्रसर हो जाता है ?
- अगर शैतान के कहने या चाहने से मानव ऐसा करता है जैसा कि कुछ अन्य धर्म कहते है तो फिर क्या शैतान भी आपके सामानांतर सत्ताधारी है? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर आप क्यों नहीं रोकते ?
- और अगर आपने मानव की रचना की थी तो उसके मस्तिष्क को इस प्रकार क्यों बनाया कि वह गलत कार्य की ओर आकर्षित हो ? यह रचनाकार की त्रुटी नहीं है क्या ?
- और अगर आप किसी गलत कार्य हेतु जिम्मेदार नहीं है और मानव स्वं में इतना सक्षम है कि वो आपकी इच्छा के बिना गलत कार्य करता जाय तो क्या आपके "हरी इच्छा बिन हिले ना पत्ता का सिद्धांत गलत नहीं होता? फिर अगर रावण, कंस आदि महामानव (जो स्वं के स्तर पर अधित सक्षम हो गए थे ) ने आपकी सत्ता को मानाने से माना किया तो उन्हें आपने पुन: जन्म लेकर क्यों मारा? क्या यह आज काल के ज़माने जैसा गरीबो का अमीरों के द्वारा किया जाने वाला उत्पीडन जैसा नहीं था ?
- कहीं इस गलत कार्यों में आपकी मौन स्वीकृत तो नहीं रहती? जिससे मानव सदैव अपराध बोध के साथ जीवन जीता रहे और आपसे अपने किये के लिए क्षमा मांगता रहे और आप लगातार उसके साथ पाप पुण्य का खेल खेल कर अन्त आकाश में कही दूर अकेले मजा लेते रहें ?
- मैंने धर्म गुरुवों से सुना है और बहुत सी पुस्तकों में पढ़ा भी है कि मरने के बाद बुरे लोंगो को दंड दिये जाने हेतु नरक और अच्छी लोगों को स्वर्ग मिलता है। तो वहीँ उसका हिसाब क्यों नहीं ख़त्म कर देते है? फिर बकाया लगाकर पुन: क्यों धरती पर भेजते है ?
- क्या यह बेईमानी नहीं है कि खाता बंद नहीं होगा ?
आपका यह लेन देन का, पाप पुण्य का, भाग्य और प्रारब्ध का चक्र कब तक चलता रहेगा और हम मानव इसमें पिसते रहेंगे।
तो मुझे तो आप में और किसी बेईमान सूदखोर में अभी भी अंतर नहीं नजर आ रहा है बाकी आपकी इच्छा।
सादर
आपकी ही बनायीं एक मानव रचना ( विवेक मिश्र )
नोट :- अंत में मै विवेक मिश्र यह सिद्धांत प्रतिपादित करता हूँ कि हे मानवों -
"अगर तुम्हे कोई सताता है , दुखी करता है, तुम्हारे साथ अन्याय करता है और आप यह सोंचते है कि ईश्वर उसे इसका दंड देगा तो आपको यह भी सोंचना होगा कि हो सकता है यह आपके द्वारा पूर्व जन्म में उस व्यक्ति के साथ किये गए किसी अन्याय का दंड इस जन्म में उसके माध्यम से मिल रहा हो। अत: आपको अपने साथ अन्याय करने वाले को आगे दंड मिलने की केवल पचास प्रतिशत ही आशा करनी चाहिए और अन्यायी को दंड ना मिलाने पर व्यर्थ में ईश्वर को दोष नहीं देना चाहिए।"
"अगर तुम्हे कोई सताता है , दुखी करता है, तुम्हारे साथ अन्याय करता है और आप यह सोंचते है कि ईश्वर उसे इसका दंड देगा तो आपको यह भी सोंचना होगा कि हो सकता है यह आपके द्वारा पूर्व जन्म में उस व्यक्ति के साथ किये गए किसी अन्याय का दंड इस जन्म में उसके माध्यम से मिल रहा हो। अत: आपको अपने साथ अन्याय करने वाले को आगे दंड मिलने की केवल पचास प्रतिशत ही आशा करनी चाहिए और अन्यायी को दंड ना मिलाने पर व्यर्थ में ईश्वर को दोष नहीं देना चाहिए।"
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Thursday, July 29, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
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