आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-

खेल तुम्हारा, गणित हमारा

मित्रों ,
मेरे किसी गुरु को उनके किसी गुरु ने सिखाया था,
जो मुझको उन्होंने अनजाने में बतलाया था......

"If you want to Win them ,
Then Join them,
Learn their Game from them,
Get Mastership in there game,
Then,Beat them in their Game....!"
मगर मैंने उसे "एकलव्य" सा अपनाया था ,
पर दुख है, इसे सबसे पहले उनपर ही अजमाया था ।
तो आनंद लीजिये कूटनीति का.....
*===================================================* (१.)सतरंज बिछाकर औरों को , कैसे ललचाया जाता है ।
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है । 
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर ही अजमाया है ।
सब गणित तुम्हारी अपनी , सब खेल वही पुराना है ।
मैंने चुने हैं अपने मोहरे , बाकी सब नियम तुम्हारा है ।

पहली चाल उन्हें देकर , उनसे शुरू कराया जाता है।
कैसे पिटवाकर अपने मोहरे , जाल बिछाया जाता है ।
कैसे अपने राजा का , किला बनाया जाता है ।
कैसे प्यादों की कमजोरी का , लाभ उठाया जाता है ।
कैसे घोड़ों के बल पर , टेढ़ी  चाल चला जाता है ।
कैसे तिरछी ऊँट चाल से , वजीर गिराया जाता है ।
कैसे हाथी के बल पर , दुश्मन को रौंदा जाता है ।
कैसे अपनी कमजोरी का , लाभ उठाया जाता है ।
कैसे वजीर सामने लाकर,शह मात बचाया जाता है।
कैसे एक चाल से केवल, बाजी को पलता जाता है।
कैसे प्यादों के बल पर , राजा को जीता जाता है ।
(२.)
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है ।
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर अजमाया है ।
सब पत्ते फेंटे तुमने है , और तुरप तुम्ही ने खोला है ।
मैंने चले है अपने पत्ते , बाकी ये खेल तुम्हारा है ।  दो और दो को पाँच बनाकर , कैसे पेश किया जाता है ।

नहले पर दहला देकर आगे , कैसे चाल चला जाता  है ।
कैसे गुलाम के जोर पर राजा , औरों का गिरवाते है ।
कैसे बदरंग रानियों को , रंग की दुग्गी से पिटवाते है ।
सत्ते पर सत्ता चलकर भी , कैसे रंग जमाते है ।
कैसे गिनकर औरों के पत्ते , अपनी गणित बिठाते है ।
कैसे  इक्के पर तुरुप चाल से , अपना हाथ बनाते है ।
कैसे पढ़कर चेहरों को ,  हम अपना जाल बिछाते है ।

बावन पत्तो के खेल में , कैसे अपनी धाक जमाते है ।
चुपचाप इशारों से केवल , कैसे साथी को समझते  है ।
कैसे कमजोर पत्तों से , सेंध लगाया जाता है ।
कैसे तुरुप के इक्के से , धाक जमाया जाता है ।
नाराज ना हों तुम अपने पर , क्यों खेल मुझे बताया है ।
यूँ तुमने सिखाया नहीं मुझे , अनुभव से ज्ञान ये पाया है ।
सत्ता का था घमंड तुम्हे , आँखों पर तेरे पर्दा था  ।
बदला लेना है तुमसे , ये मेरा बरसों का सपना था।
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है ।
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर ही अजमाया है ।
जब आज फंसे हों बुरे यहाँ , क्यों व्याकुल होते हों इतना ।
याद करो तुम थोड़ा सा , तुमने औरों को लूटा कितना !
                                                       (original - १६/०७/२००४, Modified टुडे)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

8 comments:

Deepu Pandit....... said...

Bahut Accha haii

रौशन जसवाल विक्षिप्त said...

welcome

Neelu said...

सुन्दर शुरुआत ! हिंदी ब्लॉग समूह मैं आपका स्वागत है! कृपया अन्य ब्लॉग को भी पढ़ें और अपनी टिप्पणियां देने का कष्ट करें !
मेरा ब्लॉग :
http://humarihindi.blogspot.com/

dr.aalok dayaram said...

आपका आलेख अच्छा लगा। आगे भी ऐसे ही लेख का इंतजार रहेगा।

राकेश कौशिक said...

बहुत खूब

Dr.J.P.Tiwari said...

सत्य के निकट, यथार्थ का बोध करता जिसमे व्यंग का नापा तुला छौंका कविता के स्वाद और अनुभूति को बढ़ा देता है. सवागत है आपका ब्लॉग की दुनिया में.

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

खबरों की दुनियाँ said...

आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। अच्छा लेखन ,बधाई ।
-आशुतोष मिश्र

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण

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अनुरोध

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।

अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।

खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।

जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।

ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।

सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।

तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।

मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।

विवेक मिश्र 'अनंत'

लेखा बही

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