नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
धर्म, कर्म और भाग्य त्रिकोण
कर्म के सिद्धांत में , ना धर्म को जोड़ो कभी ।
धर्म की राह से, ना कर्म को मोड़ो कभी ।
कर्म है तन की जरुरत, धर्म मन की भूँख है ।
कौन है इसमें बड़ा, ये प्रश्न ही एक भूल है ।
वृक्ष पहले था यहाँ, या बिज से है वृक्ष बना ।
धर्म सिखलाता कर्म है, या कर्म से है धर्म बना ।
भाग्य को ना कर्म से, ना धर्म से तोलो कभी ।
वो कर्म का अवशेष है , और धर्म में ही शेष है ।
है जटिल सिद्धांत ये , यदि तुम इसे समझो नहीं ।तीन दिशाएं त्रिभुज की , बीच में हों तुम कहीं । १६/०६/२००४
Wednesday, July 21, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'




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