नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
आपके परिचर्चा,प्रतिक्रिया एवं टिप्पणी हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से प्रस्तुत है-
सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?
Sep
22
नफ़रत के जब बीज बो रहे, धर्म ध्वजा के पहरेदार ।
कैसे बचेगी मानवता , यहाँ सब के सब हैं लम्बरदार ।
पहले तो दीवारें उठीं , सब धर्मो के बीचो बीच ।
फिर खिच गयी लकीरे देखो , जाति-पांति के बीचो बीच ।
शेष बचा था जो कुछ देखो , वर्गों में फिर बाँटा गया ।
चुन चुन कर इंसानों को , इंसानों से ही काटा गया ।
हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई , बौध-जैन-यहूदी भाई ।
सभी हैं ऊँचे एक दूजे से , सब के सब आवारा भाई ।
सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?
कौन बनाता किसे यहाँ , कौन चलता है इस जग को ?
शायद उनके मध्य भी हो , बँटवारा उनके कर्तव्यों का ।
कोई साझा सरकार बनाकर , सभी चलाते हो इस जग को ।
फिर भी कोई एक तो होगा , जिसने सबको पैदा किया ?
फिर जाने कब क्यों किसने , खायीं मध्य में खोद दिया ।
अब जो बीत गया सो बीत गया , जो आने वाला है वो देखो ।
सत्य गुनो मिल सब धर्मों का , आडम्बर को कचड़े में फेंको ।
काश अगर सब सुन पायें , बस अपने अंतरमन की बात ।
बच जाये ये धरती और , बच जाये मानवता की लाज ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
Wednesday, September 22, 2010 | Labels: अनंत अपार असीम आकाश : http://vivekmishra001.blogspot.com, जन-संवाद, धर्म-कर्म, मेरी कविताएँ |
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- आइये अभिवादन करें
- सबके अपने अपने ईश्वर , जाने कितने जग के ईश्वर ?
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
लेखा बही
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2 comments:
वाह .. बहुत खूब !!
Bahut hi samsaamayik sundar rachna...
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