नोट : यह मूल ब्लॉग " अनंत अपार असीम आकाश" की मात्र प्रतिलिपि है, जिसका यू.आर.एल. निम्न है:-
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मेरी व्यथा...
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMGऊब गया हूँ स्वांग रचाकर, वर्षो से मानवता का ।
चाह रहा हूँ ढोंग हटाकर, दानवता को जीने का ।
मन में बैठी घृणा है गहरे, करता दिखावा प्रेम का ।
तिरस्कार का गला दबाकर, करता दिखावा आदर का ।।
मन को भाता लोभ सदा पर, त्याग का पाठ पढाता हूँ ।
सच के नाम पर जाने कितने, झूंठ मै रोज सुनाता हूँ ।
बैर भाव को संचित कर, मै मित्र बनाता जाता हूँ ।
दानवता के मुखड़े पर,मानवता का रंग लगता हूँ ।।
कष्ट मुझे है दानवता को, रोज छिपाया करता हूँ ।
जग वालों की ख़ुशी के कारण,स्वांग रचाया करता हूँ ।
आखिर मै भी दानव हूँ, मेरा भी अंतर्मन है ।
मानव के जितना पाखंडी,नहीं अभी मेरा मन है ।।
०५/०५/२००४ को परमपूज्य लकड़-दादा पूर्व लंकाधिपति श्री श्री रावण जी, श्री कुम्भकरण जी ( टुच्चे विभीषण को छोड़कर जिसने राम के साथ जाकर लुच्चई की ) एवं लकड़चाचा मेघनाथ जी को इस आशय के साथ सादर समर्पित कि वो मुझे सच्चा दानव बनने का अभिशाप देंगे ।
Thursday, July 15, 2010
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अनुरोध
शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,उसे भूल समझकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना।
विवेक मिश्र 'अनंत'
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